"विभूति योग – भगवान की दिव्य विभूतियाँ"

राम राम प्रिय श्रोताओं।, स्वागत है आपका "आध्यात्मिक ज्ञान" में। आज हम बात करेंगे भगवद गीता के एक बेहद महत्वपूर्ण अध्याय – विभूति योग की। यह है गीता का दसवां अध्याय, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी दिव्य विभूतियों का ज्ञान कराते हैं। तो चलिए, इस आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत करते हैं।



🧘‍♂️ विभूति योग की भूमिका

👤  जब अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं –

"हे केशव, मैं आपको किस रूप में याद करूं? कैसे जानूं कि आप कहां-कहां हैं?"

तब भगवान श्रीकृष्ण मुस्कराकर उत्तर देते हैं –

"हे अर्जुन, मैं सृष्टि की हर महानता में हूँ, हर चमत्कार में हूँ, हर शक्ति और तेजस्विता में मैं ही हूँ।"

यहीं से आरंभ होता है विभूति योग – अर्थात भगवान की विभूतियाँ, वे दिव्य स्वरूप जिनमें परमात्मा स्वयं प्रकट होते हैं।


✨ भगवान की दिव्य उपस्थिति

👤  भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं –

"अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥"

अर्थ: मैं ही सबके अंत:करण में स्थित आत्मा हूँ। मैं ही सभी जीवों की उत्पत्ति, मध्य और अंत हूँ।

🌟 भगवान की प्रमुख विभूतियाँ

  • मैं अदितियों में विष्णु हूँ।

  • मैं रुद्रों में शंकर हूँ।

  • मैं गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ।

  • मैं पर्वतों में मेरु हूँ।

  • मैं नदियों में गंगा हूँ।

  • मैं पक्षियों में गरुड़ हूँ।

  • मैं ऋषियों में नारद हूँ।

  • मैं वेदों में सामवेद हूँ।

  • मैं शास्त्रों में भगवद गीता हूँ।

  • मैं युद्ध में विजयी नीति हूँ।


🙏 विभूति योग से मिलने वाली सीख

👤  विभूति योग हमें सिखाता है कि भगवान केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि इस संसार की हर सुंदरता, शक्ति और सकारात्मक ऊर्जा में विद्यमान हैं। जब आप किसी की मुस्कान में प्रेम देखें, सूर्य की रोशनी में ऊर्जा महसूस करें, या ज्ञान की बातों में गहराई अनुभव करें – समझिए, वहीं भगवान का निवास है।

भगवान ने कहा:

"एते चांशकलाः पुंसां कृष्णस्तु भगवान् स्वयं"
अर्थात – ये सभी विभूतियाँ मेरे अंश मात्र हैं, परंतु मैं पूर्ण रूप में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हूँ।


👤 तो दोस्तों, जब भी आप किसी महान चीज़ को देखें, किसी विशेष गुण, शक्ति, या दिव्यता को महसूस करें – समझिए, वह भगवान की ही झलक है। विभूति योग हमें केवल भक्ति नहीं, बल्कि जागरूकता और आभार की भावना भी सिखाता है।


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तब तक के लिए – ओम नमो भगवते वासुदेवाय।




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