परिचय:
पिछले कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा में एक अहम बदलाव देखने को मिला है। जहां एक वक्त था जब हिंदी फिल्में केवल अपनी कहानी के लिए पहचानी जाती थीं, अब वही कहानी खोती जा रही है। फिल्मी दुनिया में ‘कहानी’ और ‘कहानीकार’ के महत्व को लेकर सवाल उठ रहे हैं। आजकल की फिल्मों में कई बार ऐसी कहानी मिलती है जो न तो दर्शकों को जोड़ पाती है, न ही सिनेमाई दृष्टिकोण से कोई नई बात करती है। इस बदलते हुए परिप्रेक्ष्य में, हमें यह याद दिलाने की जरूरत है कि हिंदी सिनेमा के एक समय में कहानी ही उसकी आत्मा हुआ करती थी। एक दौर था जब सलीम-जावेद जैसे लेखक अपने संवाद और पटकथाओं से फिल्म इंडस्ट्री में क्रांति ला रहे थे।
कहानी की गुमशुदगी और सलीम-जावेद की जोड़ी की भूमिका:
हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम दौर में कहानी और संवाद के लिए सलीम-जावेद की जोड़ी की अहम भूमिका रही है। जब इन दोनों का नाम फिल्म के पोस्टर पर होता था, तो दर्शक न सिर्फ फिल्म का मजा लेने के लिए, बल्कि एक बेहतरीन कहानी की उम्मीद के साथ सिनेमाघर आते थे। फिल्म ‘जंजीर’ और ‘शोले’ जैसी कालजयी कृतियां सलीम-जावेद की लेखनी का परिणाम थीं, जिनमें ना सिर्फ किरदारों की गहरी समझ थी, बल्कि समाज की सच्चाई को भी बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया गया था।
लेकिन, आजकल की फिल्मों में वह बात कहां? आजकल साउथ की फिल्मों के रीमेक, विदेशी शॉर्ट फिल्म्स से प्रेरित कथाएं और एक जैसी देशभक्ति की कहानियां दर्शकों को बांधने में असफल हो रही हैं। इस बदलाव के बीच, एक सवाल उठता है—कहानी कहां खो गई?
'लापता लेडीज' और उसकी असलियत:
आमिर खान की फिल्म ‘लापता लेडीज’ को ऑस्कर तक के लिए भेजा गया था, लेकिन जब इसकी कहानी की जांच की गई, तो पाया गया कि यह एक विदेशी शॉर्ट फिल्म की नकल थी। यह घटना दर्शाती है कि अब हिंदी सिनेमा की कहानी की गुणवत्ता पर सवाल उठने लगे हैं। जबकि पहले भारतीय फिल्में अपनी मूल कहानी के लिए जानी जाती थीं, अब वही सिनेमा अपनी पहचान खो रहा है।
साउथ फिल्मों का बढ़ता दबदबा और रीमेक संस्कृति:
पिछले कुछ वर्षों में साउथ की फिल्मों ने बॉलीवुड को पछाड़ते हुए दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। लेकिन समस्या यह है कि बॉलीवुड में इन फिल्मों के रीमेक बन रहे हैं, जो दर्शकों के लिए अब बेमानी हो चुके हैं। हालाँकि साउथ की फिल्में जबरदस्त कहानी और गहरी भावनाओं से भरपूर होती हैं, लेकिन उनका रीमेक करके बॉलीवुड वही पुरानी बात क्यों दोहरा रहा है, यह एक बड़ा सवाल है।
देशभक्ति की नीरस कहानियाँ:
वहीं, देशभक्ति पर आधारित फिल्मों की बात करें तो ऐसा लगता है कि आजकल की फिल्मों में यह विषय भी अब पुराना और उबाऊ हो गया है। दर्शकों को अब उन कहानियों में कोई नयापन नजर नहीं आता। एक वक्त था जब फिल्में जैसे ‘शहीद’ या ‘जंजीर’ में देशभक्ति की भावना को अद्भुत तरीके से प्रस्तुत किया जाता था। लेकिन अब वही भावना कई फिल्मों में एक ही ढंग से पेश की जाती है, और यही वजह है कि अब इस विषय पर बनी फिल्मों को दर्शक उतनी दिलचस्पी से नहीं देखते।
सलीम-जावेद की जोड़ी और उनकी पहली फिल्म ‘अधिकार’
सलीम-जावेद की जोड़ी ने हिंदी सिनेमा में एक नए युग की शुरुआत की। इनकी पहली फिल्म थी ‘अधिकार’, जो 28 अप्रैल 1971 को रिलीज हुई थी। फिल्म में अशोक कुमार, देब मुखर्जी, नंदा, हेलेन और प्राण जैसे सितारे थे। हालांकि, फिल्म के क्रेडिट्स में इन दोनों का नाम नहीं था, लेकिन यह उनकी पहली फिल्म थी जिसे दोनों ने मिलकर लिखा था। इस फिल्म के बाद ही सलीम-जावेद की जोड़ी को असल पहचान मिली।
सलीम-जावेद की मुलाकात: एक दिलचस्प कहानी
सलीम खान और जावेद अख्तर की पहली मुलाकात का किस्सा भी बड़ा दिलचस्प है। सलीम खान, जिनका असली नाम गुल्लू था, इंदौर से मुंबई आए थे। वहीं जावेद अख्तर, जिनका बचपन में नाम ‘जादू’ रखा गया था, मुंबई में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। दोनों की मुलाकात एस एम सागर के फिल्म ‘सरहदी लुटेरा’ के सेट पर हुई थी। यहीं से दोनों की दोस्ती और एक साथ काम करने की शुरुआत हुई।
फिल्म ‘अधिकार’ का महत्व और जावेद-सलीम का योगदान
‘अधिकार’ फिल्म को लेकर एस एम सागर ने जावेद और सलीम की लिखी कहानी को काफी सराहा। इसके बाद दोनों को अपने करियर की पहली बड़ी सफलता मिली, और सलीम-जावेद की जोड़ी ने एक नई दिशा में हिंदी सिनेमा को आगे बढ़ाया। इस फिल्म की कहानी ने न केवल प्रेम, तिरस्कार और गलतफहमियों को दिखाया, बल्कि समाज के कई पहलुओं पर भी प्रकाश डाला। फिल्म का एक गीत ‘रेखा ओ रेखा, जबसे तुम्हें देखा’ आज भी लोगों की जुबां पर है।
अब क्यों लापता हो गई कहानी?
आज के दौर में फिल्में चाहे जो भी विषय लें, लेकिन एक चीज जो गायब हो गई है, वह है सशक्त कहानी। कहानी ही वह तत्व है जो फिल्म को दर्शकों से जोड़ता है। सलीम-जावेद की जोड़ी ने जो फिल्मों की पटकथाएं लिखीं, उनमें न केवल संवादों की ताकत थी, बल्कि समाज और इंसानियत की गहरी समझ भी थी। लेकिन अब फिल्मों में वही पुरानी कहानियाँ दोहराई जा रही हैं। इससे भी बढ़कर, फिल्मों का कंटेंट अब विदेशी प्रभाव में आकर अपनी पहचान खोता जा रहा है।
निष्कर्ष:
हिंदी सिनेमा में कहानी का महत्व हमेशा रहेगा, लेकिन यह तब ही सफल हो सकता है जब हमें फिर से सशक्त कहानियों की तलाश होगी। सलीम-जावेद की तरह लेखक और फिल्मकारों को अपनी कड़ी मेहनत और अनूठे दृष्टिकोण से फिल्में बनानी होंगी, तभी दर्शकों का दिल जीता जा सकेगा।
आगे क्या करें?
अगर आप हिंदी सिनेमा के एक सच्चे प्रेमी हैं और चाहते हैं कि कहानी फिर से वापस आए, तो फिल्मों का चयन सोच-समझकर करें। साथ ही, फिल्म के निर्माता, लेखक, और निर्देशक को बेहतर कहानियाँ लिखने और उसे पर्दे पर उतारने के लिए प्रेरित करें।