राजविद्या-राजगुह्य योग – भक्ति का सर्वोच्च ज्ञान

 आज हम श्रीमद्भगवद्गीता के नवें अध्याय – "राजविद्या-राजगुह्य योग" की चर्चा करेंगे, जो भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया भक्ति का सर्वोच्च ज्ञान है।


🔹 भूमिका

यह अध्याय गीता का हृदय है – जिसमें भगवान कहते हैं कि मैं तुम्हें वह ज्ञान देने जा रहा हूँ जो "राजविद्या" है – अर्थात समस्त विद्याओं का राजा, और "राजगुह्य" है – अर्थात सबसे गुप्त। इसे जान लेने के बाद आत्मा को परम शांति और आनंद प्राप्त होता है।




🔹 मुख्य बिंदु

  1. भक्ति ही सर्वोच्च मार्ग है

    भगवान कहते हैं कि जो मनुष्य अनन्य भक्ति से मेरी पूजा करता है, वह मुझे प्राप्त करता है। यह मार्ग सरल, सहज और सबसे प्रभावशाली है।

  2. मैं सबका पालनकर्ता हूँ

    श्रीकृष्ण कहते हैं – "मैं इस सम्पूर्ण जगत का कारण और पालक हूँ, फिर भी यह मुझमें स्थित नहीं है।" यह परम चेतना की स्थिति को दर्शाता है।

  3. निष्काम भक्ति का महत्व

    बिना किसी स्वार्थ के, केवल प्रेम और श्रद्धा से की गई भक्ति ही भगवान को प्रिय है। इस भाव से किया गया समर्पण ही मुक्ति का मार्ग है।

  4. सबमें मैं ही हूँ

    जो कुछ भी है – चर और अचर – उसमें भगवान ही विद्यमान हैं। यह अद्वैत का गूढ़ ज्ञान इस अध्याय का सार है।

  5. पापी भी शुद्ध हो सकता है

    भगवान कहते हैं – "जो भी मुझे प्रेम से स्मरण करता है, चाहे वह कितना भी पापी क्यों न हो, वह भी मेरे आश्रय से मुक्त हो जाता है।" ईश्वर की कृपा सर्वसुलभ है।


🔹 प्रेरणादायक कहानी – एक भिखारी और भगवान

एक समय की बात है। एक भिखारी प्रतिदिन मंदिर के बाहर बैठता और भगवान से प्रार्थना करता – "हे प्रभु! मुझे एक दिन अपने दर्शन दो।"

वर्षों बीत गए लेकिन कुछ नहीं हुआ। एक दिन वह अत्यंत निराश हो गया और कहने लगा – "आप सबके हैं, फिर मेरी क्यों नहीं सुनते?"

उसी रात भगवान उसके स्वप्न में प्रकट हुए और बोले – "मैं रोज तुम्हारे पास आता हूँ – जब वह वृद्ध महिला तुम्हें खाना देती है, जब वह मासूम बालक तुम्हें मुस्कराकर देखता है, जब वह राहगीर तुम्हें दुआ देता है – वही मैं हूँ।"

भिखारी की आँखें खुल गईं। उसे समझ आ गया कि भक्ति केवल मंदिर में भगवान को ढूंढ़ने का नाम नहीं, बल्कि हर जीव में ईश्वर को देखने की भावना ही सच्ची भक्ति है।



प्रिय श्रोताओं, यह अध्याय हमें सिखाता है कि ईश्वर हमारे बहुत निकट हैं – बस हमें अपने हृदय की आँखें खोलनी हैं। जब हम अनन्य प्रेम, श्रद्धा और समर्पण के साथ अपने कर्तव्यों को निभाते हैं, तब हर कर्म पूजा बन जाता है।

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🙏जय श्रीकृष्ण! जय माता दी।



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