आज हम बात करेंगे भगवद गीता के सबसे रहस्यमय अध्याय — पुरुषोत्तम योग — की।
ये है भगवद गीता का 15वाँ अध्याय, जो हमें बताता है आत्मा का असली स्वरूप क्या है, और परम पुरुष — यानि ईश्वर — कैसे सबसे ऊपर हैं।
श्रीकृष्ण इस अध्याय की शुरुआत एक सुंदर उपमा से करते हैं –
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्…"
अर्थात् ये संसार एक ऊर्ध्वमूल पीपल का पेड़ है — जिसकी जड़ें ऊपर हैं और शाखाएं नीचे फैली हुई हैं।
इसका मतलब क्या है?
• यह संसार ब्रह्म से निकला है — उसकी जड़ें "ऊपर" यानि परमात्मा में हैं।
• इसकी शाखाएं कर्मों से चलती हैं — जो हमें बाँधती हैं।
यह पेड़ दिखने में भव्य है, पर इसकी असल प्रकृति माया से बनी है।
इसलिए इसे काटना ज़रूरी है — ज्ञान की तलवार से।
श्रीकृष्ण कहते हैं:
"ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:…"
इसका अर्थ है –
हर जीवात्मा मेरे ही अंश हैं, सनातन (अविनाशी), लेकिन माया के बंधनों में फंसी हुई।
आत्मा:
• अजन्मा है
• अविनाशी है
• शरीर बदलती है, पर खुद नहीं बदलती
हम जब अपने को शरीर मान लेते हैं, तभी दुःख, भय और मोह हमारे जीवन में आते हैं।
भगवद गीता इस अध्याय में तीन प्रकार के पुरुषों का उल्लेख करती है:
1. क्षर पुरुष – यह शरीरधारी जीव है जो परिवर्तनशील है।
2. अक्षर पुरुष – यह मुक्त आत्मा है जो शरीर से परे हो चुका है।
3. पुरुषोत्तम – यह परम पुरुष है, जो न क्षर है न अक्षर। वह सबसे ऊपर है — वही भगवान हैं।
"उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युधाहृत:"
परमात्मा ही वह पुरुषोत्तम हैं जो सब कुछ में व्याप्त हैं, और फिर भी सबके परे हैं।
जो पुरुष इस पुरुषोत्तम योग को जान लेता है,
वह:
• माया के जाल से मुक्त हो जाता है
• परम पुरुष को प्राप्त कर लेता है
• अपने आत्मस्वरूप को जान लेता है
यही असली मोक्ष है — जब आत्मा अपने मूल स्वरूप, यानि परम पुरुष से एक हो जाती है।
प्रिय श्रोताओं,
आज आपने जाना पुरुषोत्तम योग का रहस्य —
कैसे आत्मा अनंत है, और कैसे परम पुरुष ही हमारी अंतिम मंज़िल हैं।
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🙏 तब तक के लिए…
अपने भीतर झाँकिए… आत्मा को पहचानिए… और पुरुषोत्तम की ओर कदम बढ़ाइए।
जय श्री राम। जय श्रीकृष्ण। जय माता दी।🙏🏼